प्राचीनकाल में सम्मेदगिरि की यात्रा के विवरण

                भक्तजन अत्यन्त प्राचीन काल से ही सिद्धक्षेत्र सम्मेदगिरि की पुण्यप्रदायिनी यात्रा के लिए जाते रहे हैं। इन यात्राओं के विवरण पुराण ग्रंथों, कथाकोषों और विविध भाषाओं में निबद्ध यात्रा - विवरण - काव्यों तथा ग्रंथ - प्रशस्तियों में मिलते हैं।

                सम्मेदशिखर की यात्रा के संदर्भ में संघ सहित मुनि अरविन्द का चरित्र ‘उत्तरपुराण’ में मिलता है। पोदनपुर नगर के राजा अरविंद थे। उनके नगर में वेदों का विशिष्ट विद्वान् विश्वभूति ब्राह्मण रहता था । उसके दो पुत्र थे- कमठ और मरुभूति । मरुभूति महाराज अरिंवंद का मंत्री था । वह अत्यन्त सदाचारी, विवेकी और नीतिपरायण भद्र व्यक्ति था । इसके विपरीत कमठ दुराचारी और दुष्ट प्रकृति का था। एक बार मरुभूति की स्त्री वसुंधरी के कारण उत्तेजित होकर कमठ ने मरुभूति की हत्या कर दी। मरुभूति मरकर मलय देश में कुब्जक नामक सल्लकी के भयानक वन में हाथी हुआ । राजा अरविंद ने किसी समय विरक्त होकर राजपाट छोड़ दिया और दिगम्बर मुनिदीक्षा धारण कर ली। एक बार वे संघ के साथ सम्मेदशिखर की वंदना के लिए जा रहे थे। चलते-चलते वे उसी वन में पहुँचे । सामायिक का समय हो जाने से वे प्रतिमायोग धारण कर विराजमान हो गये। इतने में घूमता-फिरता वह मदोन्मत्त हाथी उधर ही आ निकला और मुनिराज के पास आते ही वह शान्त हो गया। उसकी दृष्टि मुनिराज के वक्षस्थल पर बने श्रीवत्स लांछन पर पड़ी। वह टकटकी लगाकर उस चिन्ह को देखता रहा । उसे देखकर उसके मन में अनजाने ही मुनि के प्रति प्रेम उमड़ने लगा। सामायिक समाप्त होने पर मुनिराज ने आँखें खोलीं। वे अवधिज्ञानी थे। उन्होंने अपने अवधिज्ञान से जानकर हाथी को उपदेश दिया और कहा- “गजराज ! पूर्वजन्म में तू मेरा अमात्य मरुभूति था। आज तू इस निकृष्ट तिर्यंच योनि में पड़ा हुआ है। तू कषाय छोड़कर आत्म-कल्याण कर।“ मुनिराज का उपदेश गजराज के हृदय में बैठ गया। उसने अणुव्रतों का नियम ले लिया। जीवन सात्त्विक बन गया । यही हाथी का जीव आगे जाकर कठोर साधना से तेईसवाँ तीर्थकर बना । अस्तु!

                मुनिराज अरविंद संघ सहित आगे बढ़ गये और सम्मेदशिखर पहुँचकर उन्होंने भक्तिभाव सहित तीर्थराज की वंदना की। उन्होंने मोह का क्षय कर घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया तथा वहीं से मोक्ष प्राप्त किया। कवि महाचन्द्र ने अपभ्रंश भाषा के ‘संतिणाह चरिउ (रचना काल सं. १५८७) में सारंग साहू का परिचय देते हुए उनकी सम्मेदशिखर यात्रा का वर्णन किया है -

भोयउ सुह वीयउ गुणगण जूयउ णाणचंदु भणिज्जइ ।
तहु भामिणि गुण गण रामिणि सउराजही कहिज्जइ ।। २ ।।
तहु तिण्णि अंगसू तिण्णि रयण णं तिण्णि लोय ते सुद्ध वयण ।
पढ़मउ सम्मेय विजत्त करणु सारंग वि णामे सुद्ध करणु ।। ३ ।।

इसका आशय यह है कि भोजराज के पुत्र ज्ञानचंद की पत्नी का नाम ‘सउराजही’ था जो अनेक गुणों से विभूषित थी। उसके तीन पुत्र हुए। पहला पुत्र सारंग साहू था, जिसने सम्मेदशिखर की यात्रा की थी। उसकी पत्नी का नाम ‘तिलोकाही’ था ।

भट्टारक रत्नचन्द्र मूलसंघ सरस्वती गच्छ के भट्टारक थे। ये हुंबड़ जाति के थे। इन्होंने ‘सुभौमचक्रि - चरित्र’ की रचना सं. १६८३ में सागपत्तन (सागवाड़ा, वाग्वर देश) के हेमचन्द्र पाटनी की प्रेरणा से पाटलिपुत्र में गंगा के किनारे सुदर्शन चैत्यालय में की थी। पाटनी जी भट्टारक रत्नचन्द्र जी के साथ शिखर जी की यात्रा के लिए गये थे। इनके साथ आचार्य जयकीर्ति तथा श्रावकों का संघ भी था । इस संबंध में उन्होंने ग्रंथ की प्रशस्ति में उल्लेख भी किया है जो इस भाँति है-

संमेदाचलयात्रायै रत्नचन्द्रास्समागताः ।
जगन्महन्नात्मजाचार्यं जयकीर्तिभिरन्वितः ।। १६ ।।
श्रीमत्कगलकीत्र्याह्वैः सूरिभिश्च सुवर्णिभिः ।
कल्याण- कचराख्यान - कान्हजी - भोगिदासवैः ।। १७ ।।

कारंजा के सेनगण के भट्टारक सोमसेन के पट्टशिष्य भट्टारक जिनसेन द्वारा सम्मेदाचल की यात्रा का उल्लेख मिलता है। जिनसेन का समय शक सं. १५७७ से १६०७ (सन् १६५५ से १६८५) तक है।